प्रकाशके संरक्षक

 

सूर्य--ज्योति और द्रष्टा

 

ऋग्वेद प्राचीन उषामेसे एक सहस्रवाचामय स्तोत्रके रूपमें उद्भूत हुआ है जो मनुष्यकी आत्मासे सर्व-सर्जक सत्य और सर्व-प्रकाशक ज्योतिके प्रति उठा है । वैदिक ऋषियोंके विचारमें सत्य और प्रकाश पर्यायवाची या समानार्थक शब्द हैं जैसे कि उनके विरोधी शब्द अन्धकार और अज्ञान भी पर्यायवाची हैं । वैदिक देवों और असुरोंका संग्राम दिन और रातके बीच होनेवाला सतत संघर्ष है; यह द्यौ, अंतरिक्ष और पृथिवीके त्रिविध लोकपर प्रभुत्व प्राप्त करनेके लिये, मानव प्राणीके मन, प्राण और शरीरके मोक्ष या बन्धनके लिये, उसकी मर्त्यता या अमरताके लिये किया जा रहा है । यह परम सत्यकी शक्तियों और परम प्रकाशके अधिपतियों द्वारा उन दूसरी अन्धकारमय शक्तियोंके विरुद्ध लड़ा जा रहा है । वे अन्धकारमय शक्तियाँ इस असत्यके आधारको जिसमे हम निवास करते हैं, तथा अज्ञानके इन सैकड़ों दुर्गबद्ध नगरोंकी लोहमय दीवारोंको कायम रखनेके लिये संघर्ष करती हैं ।

 

प्रकाश और अन्धकारके बीच एवं सत्य और असत्यके बीच यह जो विरोध है उसकी जड़ें उस मूल वैश्व विरोधमें हैं जो प्रकाशयुक्त अनन्त और अन्धकारमय सान्त चेतनाके बीच पाया जाता है । अदिति, अनन्त एवं अखण्ड चेतना, देवोंकी माता है, दिति या दनु, द्वैधभाव, पृथक्कारी चेतना असुरोंकी । इसलिये मनुष्यमे विराजमान देवता प्रकाश, अनन्तता और एकताकी ओर गति करते हैं, असुर अपनी अन्धकाररूपी गुहामें निवास करते हैं और मनुष्यके ज्ञान, संकल्प, बल, आनन्द और अस्तित्वको रवण्ड-रवण्ड, बेसुरा, क्षत-विक्षत और सीमित करनेके लिये ही गुफासे बाहर निकलते हैं । अदिति मूलत: एकमेव तथा स्वत:प्रकाशमय अनन्त सत्ताकी विशुद्ध चेतना है । वह एक ऐसी ज्योति है जो सब वस्तुओंकी माता है । अनन्त सत्ताके रूपमे वह दक्षको अर्थात् विवेक और संविभाग करनेवाले दिव्य मनके विचारको जन्म देती है, उस वैश्व अनन्त सत्ता अथवा रहस्यमयी गौके रूपमें, जिसके स्तन समस्त लोकोंका पोषण करते हैं, वह स्वयं दक्षसे उत्पन्न होती है ।

१२५


 

दक्षकी यह दिव्य पुत्री ही देवोंकी माता है । विश्वमें अदिति है वस्तुओंकी अखण्ड-अनन्त एकता जो द्वैध-भावसे रहित, अद्वय, है और दिति अर्थात् पृथक्कारी, द्वैधकारी चेतना है उस अदितिकी वैश्व सृष्टिका उल्टा पासा,--परवर्ती गाथामें उस अदितिकी बहन और सपत्नी । यहाँ निम्नतर सत्तामें जहाँ वह पृथिवीतत्त्वके रूपमें अभिव्यक्त है उसका पति निम्न या अमंगलमय पिता है जिसका वध उसके शिशु इन्द्रके द्वारा किया जाता है, इन्द्र है दिव्य मनकी निम्न सृष्टिमें अभिव्यक्त शक्ति । सूक्तमें कहा गया है कि इन्द्र अपने पिताको पैरोंसे घसीटते हुए उसका वध कर डालता है और अपनी माताको विधवा बना देता है । एक दूसरे रूपकमें जो हमारी आधुनिक रुचिकी मर्यादाके प्रतिकूल होता हुआ भी प्रबल और भावप्रकाशक है, सूर्यको अपनी बहन उषाका प्रेमी और अपनी माता अदितिका दूसरा पति कहा गया है । और उसी रूपकको बदलकर अदितिकी स्तुति सर्वव्यापक विष्णुकी पत्नीके रूपमें की गई है,. जो विष्णु वैश्व सृष्टिमें अदितिके पुत्रोंमें से एक है और इन्द्रका छोटा भाई है । ये रूपक जो अपने गुह्य अर्थकी कुंजीके अभावमें स्थूल और उलझे प्रतीत होते हैं, कुंजीके मिलते ही तत्काल पर्याप्त स्पष्ट हो जाते हैं । अदिति विश्वमें एक अनन्त चेतना है जो सीमित मन और शरीरके द्वारा कार्य करनेवाली निम्नतर सर्जक शक्तिसे परिणीत होकर अधिकृत कर ली जाती है । किन्तु मनुष्यकी मनोमय सत्तामें अदितिसे उत्पन्न दिव्य या प्रदीप्त मन (इन्द्र )की शक्तिके द्वारा उस दासतासे मुक्त हो जाती है । यह इन्द्र ही सत्यज्योति:स्वरूप सूर्यका द्युलोकमें उदय कराता है और उससे अन्धकारों और असत्योंको एवं पृथक्कारी मनकी संकुचित दृष्टिको दूर करवाता है । विष्णु वह विशालतर सर्वव्यापक सत्ता है जो तब हमारी मुक्त एवं एकीभूत चेतनाको अपने अधिकारमें कर लेता है, किन्तु वह (विष्णु) हमारे अन्दर तभी उत्पन्न होता है जब इन्द्र अपने बलशाली और ज्योतिर्मय रूपमें प्रकट हों चुकता है ।

 

यह सत्य है सूर्यकी ज्योति, उसका शरीर । इसका वर्णन यों किया गया है कि यह सत्य, ऋत और बृहत् है, स्वर्का ज्योतिर्मय अतिमानसिक द्युलोक--''बृहत् स्वर्, महान् सत्य''--है जो हमारे द्युलोक और हमारी पृथिवीके परे छिपा हुआ है; सूर्य है ''वह सत्य'' जो अन्धकारमें खोया हुआ पड़ा है और अवचेतनकी गुप्त गुफामें हमसे रोककर रखा हुआ है । यह छिपा हुआ सत्य बृहत् है, क्योंकि यह केवल उस अतिमानसिक स्तरपर स्वतंत्र और व्यक्त रूपमें निवास करता है जहाँ अस्तित्व, संकल्प, ज्ञान

१२६


 

और आनन्द हर्षोल्लासमय तथा असीम अनन्ततामें गति करते हैं, जहाँ वे उस प्रकार सीमित ब अवरुद्ध नहीं है जैसे कि निम्नतर सत्ताका निर्माण करनेवाले मन, प्राण और शरीरके इस चारदीवारीसे घिरे हुए अस्तित्वमें । उच्चतर सत्ताकी इस विशालताकी ओर ही हमें दो घेरनेवाले मानसिक तथा भौतिक आकाशोंको भेदकर पार करते हुए आरोहण करना है । इसका वर्णन एक ऐसी दिव्य सत्ताके रूपमें किया गया है जो अपने सीमा-रहित विस्तारमें मुक्त एवं विशाल है, यह एक ऐसी विशालता है जहाँ न कोई बाधा है और न सीमाका अवरोध, यह है सूर्यके देदीप्यमान यूथोंकी एक भयमुक्त चरागाह; यह है सत्यका धाम और सदन, देवोंका अपना ही घर, सूर्यलोक, सच्ची ज्योति जहाँ आत्माके लिये कोई भय नहीं, उसकी सत्ताके विशाल तथा सम आनन्दको किसी प्रकारकी चोट पहुँचनेकी संभावना नहीं ।

 

यह अतिमानसिक विशालता सत्ताका आधारभूत सत्य भी है, 'सत्यम्', जिसमेंसे इसका क्रियाशील सत्य सहजभावसे, श्रमके संघर्षके बिना, एक पूर्ण व निर्दोष गतिके रूपमें स्रवित होता है, क्योंकि उन शिखरोंपर चेतना और शक्तिके बीच कोई विभाजन नहीं, कोई खाई नहीं, ज्ञान और संकल्पके बीच कोई सम्बन्ध-विच्छेद नहीं, हमारी सत्ता और उसकी क्रियामें कोई असामञ्जस्य नहीं, हर चीज वहाँ 'ऋजु' है, वहाँ ''कुटिलताकी रत्तीभर भी संभावना नहीं ।'' इसलिये विशालता और सत्य सत्ताका यह अतिमानसिक स्तर ''ऋतम्'' भी है अर्थात् वस्तुओंकी यथार्थ क्रिया भी है । यह है गति, क्रिया, अभिव्यक्तिका परम सत्य; संकल्प, हृद्भाव और ज्ञानका निर्भ्रान्त सत्य; विचार, शब्द और भावावेशका पूर्ण सत्य । यह है स्वतः-स्फूर्त ॠत, स्वतंत्र विधान, वस्तुओंकी मूल दिव्य व्यवस्था जो विभक्त तथा पृथक्कारी चेतनाकी असत्यताओंसे अछूती है । यह है विशाल, दिव्य तथा स्वत:प्रकाश समन्वय जो आधारभूत एकतासे उत्पन्न होता है, हमारी क्षुद्र सत्ता तो उसका केवल दीन-हीन, आंशिक, भग्न एवं विकृत, खंडात्मक रूप और विश्लेषण है । ऐसा था वह सूर्य जो वैदिक पूजाका ध्येय था, वह प्रकाशमय स्वर्ग जिसकी हमारे पितर अभीप्सा करते थे, अदितिके पुत्र सूर्यका वह लोक एवं देह ।

 

अदिति एक अनन्त ज्योति है जिसकी रचना है दिव्य लोक । उस अनन्त ज्योतिकी सन्तानरूप देवता, जो ऋत के अन्दर उससे उत्पन्न हुए हैं और उसकी गतिके इस क्रियाशील सत्यमें व्यक्त हुए हैं, अव्यवस्था तथा अज्ञान विरुद्ध  इसकी रक्षा करते हैं | वे देवता ही ब्रह्माण्डमें सत्यकी

१२७


 

अज्ञेय क्रियाओंको स्थिर बनाये रखते हैं, वे ही इसके लोकोंको सत्यकी प्रतिमूर्तिमें परिणत करते हैं । वे उदार दानी मनुष्यपर सत्ताके प्रबल प्रवाहोंको बरसाते हैं जिनका रहस्यवादी कवियोंने इन विविध रूपकों द्वारा वर्णन किया है कि वे प्रवाह सप्तविध सौर जल हैं, द्युलोककी वर्षा, सत्यकी धाराएं, द्युलोककी सात शक्तिशाली नदियाँ है, ज्ञानमय जल हैं, ऐसे प्रवाह हैं जो आच्छादक वृत्रके नियंत्रणको छिन्न-भिन्न करते हुए आरोहण करते हैं और मनको आप्लावित कर देते हैं । द्रष्टा और प्रकाशक वे देव मनुष्यके मनके तमसाच्छन्न आकाशपर सत्यके प्रकाशका उदय कराते हैं, उसकी प्राणिक सत्ताके वातावरणको उसकी ज्योतिर्मय, मधुवत् मधुर तृप्तियोंसे भर देते हैं और उसकी भौतिक सत्ताके धरातलको सूर्यकी शक्ति द्वारा उसकी विशालता एवं प्रचुरतामें रूपान्तरित कर देते हैं, सर्वत्र दिव्य उषाका सर्जन करते हैं ।

 

तब मनुष्यमें सत्यकी ऋतुएँ, दिव्य क्रियाएँ,--जिन्हें कभी-कभी आर्य क्रियाएँ कहा जाता है-स्थापित हो जाती हैं । सत्यका विधान मनुष्यके कार्यको अपने अघिकारमें लाकर परिचालित करता है; सत्यका शब्द उसके विचारमें सुनाई देता है । तब सत्यके सीधे-सरल और अविचल पथ, द्युलोककी वाट और घाट, देवों और पितरोंके जानेके मार्ग (देवयान-पितृयान) दिखाई देने लगते हैं; क्योंकि इस पथपर दिव्य क्रिया-कलापको कोई क्षति नहीं पहुँचती, यह ऋजु, निष्कंटक और सुखद है और जब एक बार इसपर हमारे पैर जम जाते हैं और प्रकट हुए देवता हमारे रक्षक होते हैं तो इसपर चलना सुगम हो जाता है, इस पथके द्वारा ही ज्योतिर्मय पितरोंने शब्दकी शक्तिसे, सोमसुराकी शक्ति और यज्ञकी शक्तिसे अभय ज्योतिमें आरोहण किया और वे अतिमानसिक सत्ताके विशाल और खुले स्तरोंपर जाकर प्रतिष्ठित हुए । उनके वंशज मनुष्यको भी उन्हींकी तरह पृथक्कारी चेतनाकी कुटिल गतियोंके स्थानपर सत्य-सचेतन मनकी सरल और ऋजु क्रियाओंको प्रतिष्ठित करना होगा ।

 

क्योंकि सूर्यके संचरण, दिव्य अश्व दधिक्रावन्की सरपट दौड़ें, देवोंके रथके पहियोंकी चाल-यें सब सदा ही विस्तृत और समतल क्षेत्रोंमें सीधे मार्गपर यात्रा करते हैं जहाँ सब कुछ खुला है और दृष्टि सीमित नहीं; परन्तु निम्नतर सत्ताके मार्ग कुटिल और चक्करदार है, गड्ढों और विध्न-बाधाओंसे घिरे हैं और वे दिव्य प्रेरणासे वंचित होकर एक ऐसी ऊबड़-खाबड़ एवं विषम भूमिपर रेंगते हैं जो मनुष्योंसे उनके लक्ष्य, उनके पथ, उनके संभव सहायकों, उनकी प्रतीक्षा कर रहे संकटों, उनकी घातमें बैठे

१२८


शत्रुओंको पर्देके पीछे छिपा देती हैं । देवोंके सीधे और पूर्ण नेतृत्वमें मन और शरीरकी सीमाएँ अन्ततोगत्वा पार हों जाती हैं, हम उच्चतर द्यौके तीन प्रकाशमान लोकोंको अधिकृत कर लेते हैं, परमानन्दमय अमरताका उपभोग करते हैं, विकसित होकर देवोंका प्रकट रूप धारण कर लेते हैं और अपनी मानवीय सत्तामें उच्चतर या दिव्य सृष्टिकी वैश्व रचनाओंका निर्माण करते है । मनुष्य तब दिव्य और मानवीय दोनों जन्म धारण करता है; वह दोहरी गतिका अधिपति होता है, अदिति और दिति दोनोंको एक साथ धारण करता है, व्यष्टिमें विश्वात्मभावको चरितार्थ करता है, सान्तमे अनन्त बन जाता है ।

 

यही है वह विचार जिसका मूर्तरूप है सूर्य । सूर्य सत्यका प्रकाश है जो दिव्य उषाके बाद मानव चेतनापर उदित होता है, वह उषाका डस प्रकार अनुसरण करता है जैसे प्रेमी अपनी प्रियाका, और उन पथोंपर चलता है जो उस उषाने अपने प्रेमीके लिए अंकित किये हैं । क्योंकि, द्युलोककी पुत्री और अदितिकी मुखाकृति अथवा शक्ति-रूपी उषा मानव सत्तापर दिव्य ज्योतिका सतत उन्मीलन ही है । वह है आध्यात्मिक ऐश्वर्योंका आगमन, एक ज्योति, एक शक्ति, एक नया जन्म, द्युलोककी स्वर्णिम निधिका मनुष्यकी भौतिक सत्तामें वर्षण । 'सूर्य' शब्दका अर्थ है ज्ञानप्रदीप्त या ज्योतिर्मय, जैसे कि ज्ञानदीप्त मनीषीको भी 'सूरि' कहा जाता है । परन्तु साथ ही इस शब्दकी धातुका अभिप्राय हैं : सर्जन करना या, अधिक शाब्दिक अर्थ करना हो तो, ढीला छोड़ देना, विनिर्मुक्त करना, वेग प्रदान करना,--क्योंकि भारतीय विचारमें सृष्टि-रचनाका अर्थ है पीछेकी ओर रोक रखी हुई वस्तुको ढीला छोड़कर सामने ले आना, अनन्त सत्तामें जो कुछ छिपा है उसकी अभिव्यक्ति करना । ज्योतिर्मय दृष्टि और ज्योतिर्मय सृष्टि--ये सूर्यके दो कार्य हैं । वह स्रष्टा सूर्य ( सूर्य सविता) हैं, और है सत्यप्रकाशक चक्षु, सर्व-द्रष्टा सूर्य ।

 

वह क्या निर्मित करता है ? सर्वप्रथम लोक, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनन्त सत्-स्वरूप परमेश्वरके जाज्वल्यमान प्रकाश और सत्यमेंसे उत्पन्न हुई है, उस सूर्यके देहमेंसे बाहर निकली है जो उस पुरुषकी अनन्त आत्म-दृष्टिका प्रकाश है, उस अग्निसे बनी है जो उस आत्म-दृष्टिका सर्वदर्शी संकल्प है, उसकी सर्वज्ञ सृष्टि-शक्ति एवं देदीप्यमान सर्वशक्तिमत्ता है । दूसरे, मनुष्यकी अंधकारावृत चेतनाकी रात्रिमें, भूत-मात्रका यह पिता, सत्यका यह द्रष्टा उस अशुभ और निम्नतर सृष्टिके स्थानपर,--जिसे वह तब हमसे दूर हटा देता है,--दिव्य लोकोंके अपरिमेय सामंजस्यको अपने अंदरसे

१२९


प्रकट करता है । ये दिव्य लोक आत्म-सचेतन अतिमानसिक सत्यसे और आविर्भूत देवत्वके सजीव विधानसे शासित होते हैं । तो भी जब इस सृष्टिका प्रश्न होता है तब सूर्यका नाम विरले ही लिया जाता है; यह नाम अनन्त ज्योति और सत्य-साक्षात्कारके विग्रहके रूपमें उसके निष्क्रिय पक्षोंके लिए आरक्षित है । अपनी क्रियाशील शक्तिमें वह अन्य नामोसे संबोधित किया गया है  । तब वह सविता (सवितृ) होता है-'सविता' शब्द उसी धातुसे बना है जिससे स्रष्टा-वाची 'सूर्य' शब्द । अथवा तब वह वस्तुओंको आकार देनेवाला त्वष्टा या संवर्धक पूषा होता है । ये संज्ञाएँ कभी-कभी सूर्यके समानार्थक शब्दोंके रूपमे प्रयुक्त होती हैं और कभी-कभी यूँ प्रयुक्त होती हैं मानो ये इस वैश्व देवत्वके अन्य रूपोंको, यहाँतक कि अन्य व्यक्तित्वोंको प्रकट करती हों । और फिर सविता चार महान् और क्रियाशील देवों--मित्र, वरुण, भग और अर्यमा, अर्थात् प्रकाशमय सामंजस्य, विशुद्ध विशालता, दिव्य उपभोग, उच्च-स्थित शक्तिके अधिपतियोंके द्वारा अपने-आपको प्रकट करता है, विशेषकर तब जब कि वह मनुष्यमें सत्यकी रचना करता है ।

 

परन्तु यदि सूर्य स्रष्टा सविता है, जो वेदकी भाषामे समस्त चराचरका आत्मा है, और यदि यह सूर्य एक ऐसा दिव्य ''विद्योतमान सत्य भी है जो द्युलोकके धारण करनेवाले विधानमें प्रतिष्ठित है'', तब सब लोकोंको सत्यके उस विधानको प्रकट करना चाहिये और वे सब बहुतसे द्युलोक होने चाहिएँ । तो फिर ये हमारी मर्त्य सत्ताके असत्य, पाप, मृत्यु, दुःख- संताप कहाँसे आते हैं ? हमें बताया गया है कि वेश्व अदितिके आठ पुत्र हैं जो उसके शरीरसे उत्पन्न हुए हैं, उनमेंसे सातसे वह देवोंकी ओर गति करती हैं, परन्तु आठवें पुत्र मार्तडको जो मर्त्य सृष्टिसे संबंध ररवता है, वह अपनेसे दूर फेंक देती है; सातसे वह देवोंके परम जीवन एवं उनके आदि युगकी ओर गति करती है, परन्तु मार्तंडको उस निश्चेतनसे, जिसके अंदर उसे झोंक दिया गया था, मर्त्यके जन्म-मरण पर शासन करनेके लिए वापिस निकाल लाती है ।

 

यह मार्तंड या आठवां सूर्य काला या अंधकारमय, खोया एवं छिपा हुआ सूर्य है । असुरोंने इसे लेकर अपनी अन्धकारमय गुफामें छिपा दिया है, और देवों और द्रष्टाओंको इसे यज्ञकी शक्तिके द्वारा वहांसे मुक्तकर तेज, गरिमा और स्वतन्त्रताके रूपमें प्रकट करना होगा । कम आलंकारिक भाषा-में कहें तो मर्त्य जीवन एक उत्पीड़ित, गुप्त, छद्मवेषी सत्यसे शासित है; जिस प्रकार दिव्य-द्रष्टृ-संकल्प-रूप अग्निदेव पहले-पहल मानवीय आवेश और

१३०


स्वेच्छाके धुँएसे धूमिल ओर तिरोहित होकर पृथ्वीपर कार्य करता है, ठीक उसी प्रकार दिव्य-ज्ञान-स्वरूप सूर्य रात्रि और अन्धकारमें छिपा पड़ा है और अप्राप्य है, साधारण मानवीय सत्ताके अज्ञान और भूल-भ्रांतिमें आवृत और अंतर्निहित है । द्रष्टा अपने विचारोंमें विद्यमान सत्यकी शक्तिसे अन्धकारमें पड़े हुए इस सूर्यको ढूंढ़ निकालते हैं, वे हमारी अवचेतन सत्तामें छिपे हुए इस ज्ञानको, अखंड और सर्वस्पर्शी दृष्टिकी इस शक्तिको, देवोंकी इस आंख-को उन्मुक्त कर देते हैं । वे उसकी दीप्तियोंको मुक्त करते हैं, वे दिव्य उषाको जन्म देते हैं । दिव्य-मनःशक्तिरूपी इन्द्र, द्रष्टा-संकल्परूप अग्नि, अंत:प्रेरित शब्दका अधिपति बृहस्पति, और अमर-आनन्द-स्वरूप सोम मनुष्य-मे' उत्पन्न होकर पर्वत (भौतिक सत्ता )के दृढ़ स्थानोंको छिन्नभिन्न करनेमें ऋषियोंकी सहायता करते हैं, असुरोंकी कृत्रिम बाधाएँ खंड-खंड हो जाती हैं और यह सूर्य ऊपर चढ़ता हुआ हमारे द्युलोकोमें जगमगा उठता है । उदित होकर यह अतिमानसिक सत्यकी ओर आरोहण करता हैं । ''वह उस पथपर अपने लक्ष्यकी ओर जाता है जिसे देवोंने उसके लिए बाज़की तरह चीरकर बनाया है ।'' वह अपने सात तेजस्वी अश्वोंके साथ उच्चतर सत्ताके पूर्णतया ज्योतिर्मय समुद्र तक आरोहण करता हैं । वह एक जहाज-में द्रष्टाओं द्वारा उस पार ले जाया जाता है । सूर्य संभवत: अपने-आपमें एक स्वर्णिम जहाज है जिसमें संवर्धक पूषा मनुष्योंको बुराई, अन्धकार और पापसे पार कराकर सत्य और अमरता तक ले जाता है ।

 

यह सूर्यका प्रथम पक्ष है कि वह सत्यकी परम ज्योति है जो मानवको अज्ञानसे मुक्त होनेके बाद प्राप्त होती हैं । ''इस अन्धकारसे परे उच्चतर ज्योतिको देखते हुए हमने उसका अनुसरण किया है और उस उच्चतम ज्योति-तक पहुंच गये हैं, जो दिव्यसत्तामें दिव्य सूर्य है ।'' (ऋ० 1.50.101) । यह उस विचारकों प्रस्तुत करनेकी वैदिक शैली है जिसे हम उपनिषदोंमें अधिक खुले रूपमें अभिव्यक्त पाते हैं, सूर्यका वह उल्वलतम रूप जिसमें मनुष्य ''वही मैं हूँ'' इस मुक्त दृष्टिसे सर्वत्र एकमेव पुरुषको देखता है । सूर्यकी उच्चतर ज्योति वह है जिसके द्वारा अन्तर्दृष्टि हमारे अन्धकारमय स्तर पर उदित होती है और अतिचेतनकी ओर गति करती है, उच्चतम ज्योति है इस अन्तर्दृष्टिसे अन्य वह महत्तर सत्य-दृष्टि जो प्राप्त

_______________ 

 1. उद् वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम् ।

    देवें देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् । । ऋ. 1.50.10

१३१


हो जानेपर अनन्तके दूरतम परम लोकमे गति करती है । (ऋ. X.37.3-41)

 

यह तेजोमय सूर्य मनुष्यके देवोन्मुख संकल्पसे निर्मित होता है । यह दिव्य कार्योंके कर्ताओंसे पूर्णतया गढ़ा जाता है । क्योंकि यह ज्योति परम-देवका वह दर्शन है जिस तक मनुष्य अपनी सत्ताके यज्ञ या योगसे, प्रच्छन्न सत्यकी शक्तियोंके प्रति आत्मोत्थान और आत्म-दानके दीर्घ प्रयास द्वारा प्राप्त अपनी सत्ता और परमदेवके ऐक्यसे पहुंचता है । ऋषि पुकारकर कहता है, ''हे सूर्य ! तू है सर्व-दर्शी प्रज्ञा, हम जीवधारी तुझे महान् ज्योति-को हमारे पास लाते हुए देखें, साथ ही परमानन्दके दर्शनके-बाद-दर्शनके लिए हमपर देदीप्यमान होते हुए और अपनी ऊर्ध्वस्थ शक्तिके विशाल पुंजमें आनन्दकी ओर ऊपर आरोहण करते हुए देखें !'' (ऋ. X.37.82) । हमारे अन्दर स्थित प्राणशक्तियोंको, पवित्र करनेवाले मरुत् देवताओंको, जो ज्ञानके लिए युद्ध करते हैं, दिव्य-मन-स्वरूप इन्द्रके द्वारा सृष्ट होते हैं और दिव्य पवित्रता तथा विशालता-स्वरूप वरुणके द्वारा अनुशासित होते हैं, इस सूर्यकी ज्योतिके द्वारा अपना आनदोपभोग प्राप्त करना है ।

 

सूर्यकी ज्योति उस दिव्य अंतर्दृष्टिका एक स्वरूप एवं देह है । सूर्यका वर्णन यूँ किया गया है कि वह सत्यकी विशुद्ध और अन्तर्दृष्टियुक्त शक्ति है जो उसका उदय होनेपर द्युलोकके स्वर्णकी तरह चमक उठती है । वह एक महान् देवता है जो मित्र और वरुणकी अन्तर्दृष्टि है, वह उस साक्षात् बृहत्ता एवं उस सामंजस्य का विशाल और अजेय चक्षु हैं । मित्र और वरुणका चक्षु सूर्यकी अंतर्दृष्टिका महान् समुद्र है । वह विशाल सत्य-दर्शन जो उसका साक्षात् करनेवालोंको हमसे ऋषिका नाम दिलवाता है, इस सूर्यका ही सत्य-दर्शन है । अपने आप ''विशाल-दर्शी'' होता हुआ ''वह सूर्य अर्थात् इन देवोंके त्रिविध ज्ञान और इनके अधिक शाश्वत जन्मोंको जाननेवाला वह द्रष्टा'' उस सबको देखता है जो कुछ कि देवों और मनुष्योमें है; ''मर्त्योंमे सरल तथा कुटिल वस्तुओं पर दृष्टि डालता हुआ वह उनकी चेष्टाओंको नीची निगाहसे देखता है ।'' प्रकाशकी इस आंखसे ही इन्द्र जिसने सुदूर

______________

1. प्राचीनमन्यदनु वर्तते रज उदन्येन ज्योतिषा यासि सूर्य ।।

ऋ. X.37.3

येन सूर्य ज्योतिषा बाधसे तमो जगच्च विश्वमुदियर्षि भानुना ।

ऋ. X.37.4

2. महि ज्योतिर्बिभ्रतं त्वा विचक्षण भास्वन्तं चक्षषेचक्षुषे मय: ।

  आरोहन्तं बुहत: पाजसस्परि वयं जीवा: प्रतिँ पश्येम सूर्य ।।

ऋ. X.37.8

१३२


दृष्टिके लिए सूर्यका उदय कराया है, प्रकाशकी सन्तानोंको अन्धकारकी सन्तानोंसे पृथक् करते हुए, आर्य-शक्तियोंका दस्युकी शक्तियोसे भेद करता है ताकि वह इनका विनाश कर सके किन्तु उन्हें उनकी पूर्णता तक ऊँचा उठा सके ।

 

परन्तु ऋषित्व (क्रान्तदर्शिता) अपने साथ न केवल दूर-दर्शन अपितु दूर-श्रवण भी लाती है । जैसे ऋषिकी आंखें प्रकाशकी ओर खुली होती हैं वैसे ही उसका कान अनन्त स्पन्दनोंको ग्रहण करने के लिए उदघाटित होता है । सत्यके समस्त प्रदेशोंसे उसके अन्दर उसका शब्द स्पन्दन करता हुआ आता आता जो उसके विचारोंका स्वरूप बन जाता है । जब ''विचार सत्यके धामसे उठता है'' तभी सूर्य अपनी किरणोंके द्वारा प्रकाशकी रहस्यमयी गौको विशालतामें मुक्त कर देता है । सूर्य अपने आप न केवल ''द्युलोकका एक पुत्र है जो देवोंसे उत्पन्न दूर-दर्शी ज्ञानचक्षु है'' (ऋ. X.37.11), अपितु वह परम शब्दका वक्ता भी है तथा प्रकाशित और प्रकाशक विचारका प्रेरक भी । ''हे सूर्य ! निष्पाप रूपमे उदित होतें हुए तू आज जिस सत्यको मित्र और वरुणके प्रति कहता है उसीको हम भी कहें और हे अदिति ! तेरे प्रिय होते हुए, हे अर्यमन् ! तेरे प्रिय होते हुए हम परमदेवमें निवास करें'' (ऋ. VII.60.12) । ओर गायत्रीमें जो प्राचीन वैदिक धर्मका चुना हुआ मंत्र है, सविता-देव सूर्यके परम प्रकाशका वरणीय पदार्थके रूपमे आवाहन किया गया है और यह प्रार्थना की गई है कि वह देव हमारे समस्त विचारोंको अपनी प्रकाशपूर्ण प्रेरणा प्रदान करे ।

 

सूर्य है सविता अर्थात् स्रष्टा; क्योंकि मनुष्यके अन्दर विद्यमान दिव्य-दृष्टि पर इस प्रकार देवत्वका आरोपण करनेमें द्रष्टा और स्रष्टा फिरसे मिल जाते हैं । उस अन्तर्दृष्टिकी विजय, ''सत्यके अपने धामके प्रति'' इस ज्योतिका आरोहण, सूर्यकी उस अन्तर्दृष्टिके, जो अनन्त विशालता और अनन्त सामंजस्यकी चक्षु है, इस महान् सागरका परिप्लावन वास्तवमें दूसरी या दिव्य सृष्टिके अतिरिक्त कुछ नहीं है । क्योंकि तब हमारे अन्दर स्थित सूर्य सब लोकों और सब उत्पन्न पदार्थोंको एक सर्वग्राही दृष्टिसे इस रूपमें देखता है कि वे दिव्य प्रकाशके गोयूथ है और अनन्त अदितिके देह हैं ।

____________

1.  नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृतं सपर्यत ।

        दूरेदृशे देवजाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्याय शंसत । । ऋ. X. 37.1

     2. यवद्य सूर्य ब्रवोऽनागा उद्यन् मित्राय वरुणाय सत्यम् ।

        वयं देवत्रादिते स्याम तव प्रियासो अर्यमन् गृणन्त: ।।

ऋ. VII.60.1

१३३


समस्त वस्तुओंको इस प्रकार नयी दृष्टिसे देखना, विचार, कार्य, वेदन, संकल्प और चेतनाको नये सिरेसे सत्य, आनन्द, ऋत और अनन्तताके रूपोंमें ढालना, एक नयी सृष्टि है । यह है हमारे अन्दर ''उस महत्तर सत्ता का'' आगमन ''जो इस लघुतर सत्ताके दूसरी ओर उस पार विद्यमान है और जो, यदि वह भी अनन्त देवका एक स्वप्न ही हो तो भी, असत्यको इससे दूर हटा देती है'' ।

 

मनुष्यको प्रकाश प्रदान करना और उसकी ऊर्ध्वमुखी यात्राके द्वारा उसके लिए नया जन्म और नयी सृष्टि तैयार करना ही दिव्य ज्योति तथा द्रष्टा-स्वरूप सूर्यका कार्य है ।

१३४